Bandhavgarh: कई सदियों का इतिहास संजोए बाँधवगढ़ ‘बाँधवगढ़ का पुरा वैभव’

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आलेख- प्रदीप सिंह गहलोत
Bandhavgarh: ‘बाँधवगढ़ का पुरा वैभव’ के लेखक शासकीय हाईस्कूल खलेसर उमरिया, ज़िला उमरिया म.प्र. में प्राचार्य हैं और इन्होंने उमरिया ज़िले के इतिहास पर वृहद अध्ययन किया है। यह आलेख उनके facebook वॉल से साभार लिया गया है।


दोस्तों, आप सभी ‘बांधवगढ़’ को नेशनल पार्क के रूप-नाम से जानते होंगे। आज मेरे आलेख के माध्यम से आप ‘बांधवगढ़ के पुरावैभव’ से परिचित होंगे। आइये, सबसे पहले बांधवगढ़ किले के संक्षिप्त इतिहास को जानते है ।
यह समतल 95 हेक्टेयर में फैला और 32 पहाड़ियों से घिरा हुआ है। प्राचीन समय में यहां 12 तालाब हुआ करते थे,जिसमें 8 बड़े हुआ करते थे और 4 छोटे थे। एक रानी तालाब जिसके किनारे रानी महल व मंदिर बना है। दूसरा बाबा तालाब जिसके किनारे गुरूकुल हुआ करता था,जो अब लभेड़ के पेड़ के आगोश में जीर्ण-शीर्ण है । बाबा तालाब तो चट्टानों को काटकर नायाब तरीके से बनाया गया है। तीसरा कबीर तालाब है, जिसके समीप कबीर मठ अभी भी है,जहां हर साल कबीर उत्सव मनाया जाता है । ये 3 तालाब तो आज भी जीवित हैं। समय के साथ किले के बहुत से तालाबों का अस्तित्व अब नही रहा ।
रानी महल, शिव मंदिर, भण्डार गृह, कचहरी, अस्तबल, कबीर चौरा, कबीर मठ, कबीर तालाब,व बाघेल शासकों के समय का बाँधवाधीश मंदिर अभी भी सुरक्षित बचा हुआ है। हर साल सिर्फ एक दिन यह आपके लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को खुलता है, तब आप 15 किलोमीटर की ट्रैकिंग कर देख सकते है। मैंने 2021 में यहां ट्रैकिंग करके पहुंचा था।

दोस्तों, किले का भू-भाग हरी-भरी चक्रधारा, सेहरा, दंदरा नामक दलदली क्षेत्र और सेंड स्टोन से रिसते श्रोत,चश्में, व चरणगंगा,
जनाड, दमनार व भदार जैसे नदी-नालों से युक्त है। जब चक्रधारा के घांस के मैदानों में पहुंचते है तब ‘बांधव’ व ‘बंधैनी’ पर्वत श्रंखला का युगल दृश्य हमें दिखता है। यदि आप ताला गेट से सफारी में आते हैं,तो आप भी देख सकते हैं ।
अपने बांधवगढ़ किले का बहुत ही प्राचीन इतिहास है। यह महाभारत काल में (3500 ई.पू.) मत्स्य देश अंतर्गत वर्णित है ।
प्राचीन भारत के नक्शे को देखने से ज्ञात होता हैकि,मौर्य काल 322 से 184 ई.पू.में मौर्य शासन का राज्य विस्तार मध्य भारत अंतर्गत बांधवगढ़ तक रहा । मौर्य काल में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार यहां भी हुआ । मल्ल व मगध क्षेत्र के बौद्ध प्रचारकों के यहां आगमन पर ‘मिल्ली’ व ‘मगधी’ ग्राम का नामकरण हुआ। ग्राम कुठलिया जो सिगुड़ी के पास है,आप बेलनाकार स्तूप देख सकते हैं। मौर्य काल में बांधवगढ़ प्रमुख व्यापारिक केंद्र रहा। बड़ी गुफा में मिले शिलालेख, गुहालेख व स्तम्भलेख पर ब्राम्हीलिपि प्राकृत भाषा में क्या लिखा अभी तक कोई पढ़ नही सका, यह शोध का विषय है।लेख मौर्य काल से सम्बंधित हो सकते हैं ।

शक व कुषाण काल में भी यहां बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार रहा ।
मौर्य से कुषाण काल तक उत्तर में जिनका शासन रहा उनका ही यहां तक विस्तार रहा।
आपस की फूट व बाहर की लूट के कारण ही देश के बाहर के लोग यहां आते गए ।
बांधवगढ़ विंध्याचल पर्वत का दक्षिणी भू-भाग है । शैव मतालम्बी भारशिव नागवंशी राजाओं का भी यहां शासन रहा ।
गुप्तकाल में राजा वैष्णव धर्मावलंबी रहे । वराह-मूर्ति को कुछ लोग गुप्तकालीन तो कुछ कलचुरीकालीन युवराजदेव प्रथम 915-945 ई. की मानते है । फाह्यान का आगमन भी बौद्ध ग्रंथ व लिपि खोज के कारण यहां हुआ ।
हर्षवर्धन का राज्य विस्तार अमरकंटक के विंध्य से गंगा नदी तक फैला रहा,जिसमें बांधवगढ़ क्षेत्र भी शामिल रहा । हर्षवर्धन पहले शैव फिर बौद्ध हो गए थे ।

आप सभी राजाओं व सम्राटों का राज्य विस्तार नक्शे में गहनता से देखें तो आपको अपना बांधवगढ़ क्षेत्र भी परिलक्षित होगा।
उत्तर भारत में जिनका शासन रहा, उसके अधीन यह भी रहा।प्रत्यक्ष शासन नही रहा।
गोंड राज्य गढ़ा के शासक रहे,जबकि कलचुरी त्रिपुरी के शासक रहे ।
गोंड राज्य में राजा संग्राम शाह, दलपत शाह और रानी दुर्गावती बहुत प्रसिद्ध हुए । संग्राम शाह के समय राज्य का बहुत विस्तार हुआ, तब बांधवगढ़ भी गोंड राज्य के अधीन रहा। ‘गढ़ा मण्डला के गोंड राज्य’ नामक किताब में लेखक रामभरोसे अग्रवाल ने इसका विस्तार से उल्लेख किया है ।

बांधवगढ़ में लंबे समय तक कलचुरी व लोधी राजाओं के वर्चस्व की लड़ाई चलती रही । कलचुरियों के 36 गढ़ छोटे-छोटे राज्य रहे । बांधवगढ़ में कलचुरियों का शासन 600-1200 ई.तक रहा । कलचुरीकाल कला एवं स्थापत्य विकास के दृष्टिकोण से विशेष रूप से गौरवशाली रहा। कला व कलाकारों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था। बांधवगढ़ को कलचुरी शासकों ने धार्मिक व राजनैतिक केंद्र के रूप में लंबे समय तक स्थायित्व प्रदान किया ।

व्याघ्रदेव के वीर पुत्र कर्णदेव का विवाह कलचुरी शासक सोमदत्त की पुत्री पद्मकुंवरी से हुआ,दहेज में यह किला व आसपास का भूभाग मिला । बांधवगढ़ अब बघेलों अर्थात व्याघ्रदेव के वंशजों के अधीन हो गया । विक्रमादित्य के समय 1617 ई. में रीवां राजधानी हो गयी । शासन का संचालन फिर यहीं से होने लगा । ‘रीवां राज्य का इतिहास’ नामक किताब में लेखक यादवेंद्र सिंह परिहार ने विस्तार से वर्णन किया है । आप महाराजा कोठी बांधवगढ़ के संग्रहालय में उस युग के अवशेष देख सकते हैं।
वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगा। कालांतर में बांधवगढ़ में बाघों का राज्य स्थापित हो गया।सीता व चार्जर की जोड़ी विश्वविखयात हुई।
दोस्तो,नारद पंचरत्न और शिव संहिता पुराण गाथा में उल्लेख हैकि जब भगवान श्रीराम लंका विजय कर पुष्पक विमान से अयोध्या लौट रहे थे। तब विश्राम के लिए इस पर्वत पर रुके थे। भगवान राम ने अपने बांधव अर्थात भाई लक्ष्मण को यह गढ़ अर्थात किला उपहार स्वरूप दिया था,तब से यह भाई का किला बांधवगढ़ कहलाता है । आज भी रामपथ गमन अंतर्गत यहां सीता मण्डप,सीता की रसोई दर्शनीय है ।
हुमायूं की बेगम को भी इस किले की शरण मिली, जब शेरशाह सूरी ने हमला किया था । उपकृत अकबर ने बांधवगढ़ के नाम से तब चांदी के सिक्के भी चलाये थे ।

बांधवगढ़ पहाड़ियों में 39 अनकही गुफायें आज भी दर्शनीय है। ये किले के 5 कि.मी. के दायरे में, बस दुर्ग के नीचे की तलहटी के एक बहुत बड़े क्षेत्र में देखने को मिलती है ।आज भी ये विविध प्राचीन गुफाएं जिन्हें शैलाश्रय भी कहा जाता है, मानव वास्तु निर्मित है । स्थानीय जनमानस में ये कई नामों से जानी जाती है। शेष-शैया तक पहुंचने से पहले चढ़ाई में बाएं ओर एक बड़ी दालान जैसी गुफा अस्तबल कहलाती है, जिसमे घोड़े बांधे/रखे जाते थे। आगे कक्षयुक्त गुफा रचना है,जो ‘कचहरी’ कहलाती है ।
शेष-शैया के पूर्व दिशा में एक गुहा कक्ष है, इसमें शिलालेख भी उत्कीर्ण है,इस गुफा से पूर्व की ओर नीचे तलहटी में एक द्वार वाली जिसमें स्तम्भ युक्त 9 कक्ष हैं, एक ‘बड़ी-गुफा’ निर्मित है । यह बड़ी गुफा के नाम से जानी जाती है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह सभाकक्ष गुहावास्तु कहलाती है । छत से प्रकाश व वायु के लिए छिद्र (Holes) बने हुए है । आजकल तो द्वार में लोहे का दरवाजा लगा दिया गया है। आगे चलने पर हमें फिर एक स्तम्भ वाली गुफा मिलती है । जिसमें उत्कीर्ण मानव निर्मित बाघ, हाँथी, सुअर,घुड़सवार शिकार को दर्शाते हुए चित्र बने है । गुफा में ब्राम्ही लिपि में प्राकृत भाषा के लेख भी देखने को मिलते है । जो आज भी अनकही कहानी सदृश रहस्यमयी है

शिलालेख और गुहालेख अशोक महान के समय के हो सकते हैं,लेख ब्राम्ही लिपि व प्राकृत भाषा के हैं। जिन्हें आज तक पढ़ा नही जा सका है।
सीता गुफा व सीता मंडप गुफा भी स्थानीय नामों में मिलती है । कुछ गुफाएं सैन्य-सुरक्षा के लिए प्रयुक्त प्रतीत होती है । गुफाएं जैव-विविधता के लिए भी शैलाश्रय है ।
निश्चित रूप देश के अन्य नेशनल पार्क में इतनी विविध रोचकता मिलना मुश्किल है,जितनी अपने ‘बांधवगढ़’ में है ।
बांधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में किले की ओर जाने वाले रास्ते पर भगवान विष्णु के कई अवतारों की कलचुरीकालीन लगभग 10 वीं सदी की प्रतिमाएं भी देखने को मिलती है ।
लगभग 35 फ़ीट लम्बी भगवान विष्णु की सात फनों वाले शेषनाग पर लेटी हुई ‘शेषशैय्या’ की दिव्य आलौकिक प्रतिमा आज भी पर्यटकों का मन मोह लेती है । एक ओर शिवलिंग तो दूसरी ओर पीपल के वृक्ष समीप ब्रम्हा भी स्थापित है। हम यहाँ एक साथ ब्रम्हा-विष्णु-महेश को देख पाते हैं।

विष्णु के चरणों की ओर से पवित्र ‘चरणगंगा’ नदी का उद्गम व सदाबहार कुंड भी दर्शनीय है ।
बांधवगढ़ में कलचुरी साम्राज्य 600-1200 ई.तक रहा । 8 वें शासक युवराज देव प्रथम ( 915-945) ई. प्रतापी, वीर, दूरदर्शी और कलाप्रेमी रहे। मंत्री गोल्लक वैष्णव उपासक रहे ।
हमें शेषशैय्या के साथ-साथ यहां विष्णु के वराहावतार (Boar) मत्स्यवतार (Fish),
कच्छपवतार (Tortoise) वामनावतार (Dwarf) की प्रतिमाएं भी देखने को मिलती है । कच्छपवतार के समीप गणेश, बौद्ध व अन्य प्रतिमाएं भी देखने को मिलती है । जिसमे आज भी शोध होना शेष है ।
कुछ इतिहासकार इन्हें गुप्तकालीन भी मानते है,जो वैष्णव मतावलंबी रहे,क्योंकि बांधवगढ़ उत्तरभारत के साम्राज्य के अधीन अप्रत्यक्ष रूप से भी रहा । शेषशैय्या के समीप कई फलदार वृक्ष मालाबार हॉर्नबिल सहित विविध पक्षियों का आवास है । यह रमणीक स्थल धार्मिक होने के कारण आज भी आस्था का केंद्र है। सफारी के समय गाईड इसे दिखातें हैं ।

बांधवगढ़,संगीत,कला,साहित्य व संतों की साधना स्थली भी रही है ।
बघेल शासक वीरसिंह जू देव संत कबीर साहेब के प्रमुख शिष्य रहे । तब का ‘साहब सलाम’ शब्द अब बघेलों में परस्पर अभिवादन के संबोधन में प्रयोग हो रहा है । कबीरपंथी अनुयायी आज भी परस्पर ‘साहब वन्दगी’ शब्द का प्रयोग अभिवादन के लिए करतें है । देशाटन के समय कबीर साहेब ने कई बार अपना समय बांधवगढ़ में व्यतीत किया था । आज भी कबीर चौरा व
मठ विद्यमान है । प्रतिवर्ष कबीर उत्सव में लाखों श्रद्धालुओं का यहां आना अनवरत बना हुआ है । धनी धर्मदास जी कबीर साहेब के उत्तराधिकारी हुए, जिनका जन्म बांधवगढ़ में हुआ था।

संत सेन महाराज जी का जन्म भी बांधवगढ़ में हुआ । सेन समाज का भी यहां उत्सव मनाया जा चुका है ।
संगीत सम्राट तानसेन ने महाराज रामचन्द्र जू देव के संगीत प्रेम में तरुणाई का एक भाग बांधवगढ़ में व्यतीत किया। कालांतर में तानसेन को अकबर के दरबार में जाना पड़ा । महाराज रामचन्द्र जू देव ने तानसेन की पालकी को तब स्वतः कंधा देकर अश्रुपूरित सजल नयनों से बिदा किया था। बांधवगढ़ किला तब संगीत,साहित्य कला और संतों के लिए आश्रय स्थली रही ।
बांधवगढ़ किला प्रतिवर्ष सिर्फ श्री कृष्ण जन्माष्टमी व कबीर उत्सव के समय ही आप देख सकते है । वर्तमान में फायर बैलूनिंग एडवेंचर द्वारा एयर सफारी स्टार्ट हुई है,आप पार्क के साथ-साथ किले को देख सकते हैं। नेशनल टाइगर रिज़र्व के कोर एरिया में स्थित होने के कारण यह क्षेत्र प्रतिबंधित रखा गया है ।
कैसे जाएं :-
बांधवगढ़ टाइगर रिज़र्व आवागमन के सभी मार्गों से जुड़ा है ।
वायुमार्ग :-
निकटतम एयरपोर्ट
डुमना एयरपोर्ट जबलपुर (170Km)
खजुराहो एयरपोर्ट (275Km)
वाराणसी एयरपोर्ट
(355Km)
बांधवगढ़ एयरस्ट्रिप उमरिया से भी जुड़ा है।प्राइवेट चार्टेड प्लेन से पर्यटक यहां आ सकते है । फिर 32 Km की दूरी के लिए प्राइवेट टैक्सी व बस सुविधा पूरे समय उपलब्ध है ।
बस मार्ग :-
यह राष्ट्रीय व राज्य सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है
उमरिया 32 km
कटनी 90 km
सतना 120 km
जबलपुर 170 km
रेलमार्ग :
बांधवगढ़ रेलवे स्टेशन नही है । निकटतम रेलवे स्टेशन उमरिया(32Km) है,जो कटनी-बिलासपुर रेलमार्ग पर स्थित है । आप कटनी (90Km) सतना (120Km) व जबलपुर ( 170Km) से भी यहाँ आ सकते हैं।
weloveumaria
Youtube Link- https://youtube.com/channel/UCVjsyRzPnQpWhmARMk6DkVg
✒️आलेख :-
प्रदीप सिंह गहलोत
(प्राचार्य)
शास.हाई स्कूल खलेसर
उमरिया (म.प्र.)
निवास:’अवंतिका’
विकटगंज उमरिया (म.प्र)
9755940185